पतझड़ों के मौसम में पत्तों का दर्द कोई क्या जाने,
जिस दरख्त को समझा था अपना साथ छोड़ा उसी ने है ।
फूलों का क्या है उड़ कर दरख्त से गर गिर भी जाएँ रास्तों में
, मंदिरों में चढ़ कर मंजिलें तो पा ही लेते हैं ।
जमीं दोज होकर वो पत्ते पैरो तले कुचलते-रोंदते,
किसी नाले में बहते हुए पत्तों का दर्द भला कोई क्या जाने ।
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