आहट भी न हुई धरा काँप गयी थी कुछ इस तरह ,
पल में बिखर इमारतें गयीं थी सूखे पत्तों की तरह ,
वो जो दुश्मन लगते थे आज लग रहे दोस्तों की तरह ,
फिर न काँपे धरती इस डर से बीत रहा पल भी सदियों की तरह ॥
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जागे भी न थे वो अभी थरथरा ये धरती गयी ,
चादर में लिपटे मासूमों की सांसें भी थम गयी ,
माँ खिलाती निवाला जिनहें ,उन्हें धरती निगल गयी ,
आह न हुई आवाज न हुई मौत उन आगोश में ले गयी ॥
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एक इंच धरा के वास्ते रिश्तों में बढ़ रही हैं दूरियां ,
एक फ़ीट जमीं के वास्ते चलती हैं चाकू छुरियाँ ,
भगवान तेरी बनायीं धरा पर बहती है सुन्दर नदियां ,
हलके से भी हिल जाये धरा गर बहती हैं खून की नदियां ॥
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