Sunday, May 3, 2015

भूकंप

आहट भी न हुई धरा काँप गयी थी कुछ इस तरह ,

पल में बिखर इमारतें गयीं थी सूखे पत्तों की तरह ,

वो जो  दुश्मन लगते थे आज लग रहे दोस्तों की तरह ,

फिर न काँपे  धरती इस डर से बीत रहा पल भी सदियों की तरह ॥

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जागे भी न थे वो अभी थरथरा ये धरती गयी ,

चादर में लिपटे मासूमों की सांसें भी थम गयी ,

माँ खिलाती निवाला जिनहें ,उन्हें धरती निगल  गयी ,

आह न हुई आवाज न हुई मौत उन आगोश में ले गयी ॥

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एक इंच धरा के वास्ते रिश्तों में बढ़ रही हैं दूरियां ,

एक फ़ीट जमीं के वास्ते चलती हैं चाकू छुरियाँ ,

भगवान तेरी बनायीं धरा पर  बहती है सुन्दर नदियां ,

हलके से भी हिल जाये धरा गर बहती हैं खून की नदियां ॥

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