Friday, September 2, 2016

वक़्त इस कदर बदलता सा जा रहा है,

वक़्त इस कदर बदलता जा रहा है,
हर रिश्ता, रिश्तों से दूर होता जा रहा है,
चुपचाप अब तो फ़ोन से रिश्तों को निभाया जा रहा है,
जो दूर हो गए थे उनको कहीं यहाँ, कहीं वहां ढूँढा जा रहा है,
जो पास रिश्ते थे दूर उनको किया जा रहा है,
नहीं अब आता है वो छुटी वाला रविवार,
दो घडी धूप में बैठ गपशप का दौर ख़त्म से हो रहा है,
छतों की मुंडेर सूनी सी पड़ी रहती हैं, कोई पक्षी भी नज़र कम ही आता है,
बॉलकोनी से दोस्ती निभाई जाने लगी है,
कोई अपना सा लगने वाला पराया सा होता जा रहा है,
वो जो पराये थे न जाने कब अपने से लगने लगे हैं,
नानी- दादी की गोद में सर रख कहानियां सुनना,
बीते दौर का सपना सा होता जा रहा है,
दादा की ऊँगली थामे कोई बचपन पार्कों में नज़र अब आता नहीं है,
बचपन के कांधों पर किताबों का बोझ बढ़ता जा रहा है,
बचपन बंद कमरों में सिमट सा रहा है,
वक़्त इस कदर बदलता सा जा रहा है,

No comments:

Post a Comment