Sunday, December 4, 2016

थोड़ा सा रामराज्य

इन दिनों कुछ लोग बदलने से लगे हैं,
पडोसी भी अब आकर दर्द बाँटने लगे हैं,
'न किसी के घर के ताले अब टूट रहे हैं,
न किसी की जेब पर अब डाके पड़ रहे हैं,
लगने यूँ लगा है की जैसे थोड़ा- थोड़ा ही सही,
देश अब रामराज्य की तरफ बढ़ रहा है,
लुट  तो सब  गए है सभी, फिर भी, 
शिकायत न कोई दर्ज करा रहा है,
कानून भी लगता है दायरे में सिमट सा गया है,
धर्मस्थल पर अब किसी दंगाई की नज़र भी न पड़ रही है,
दुकानों में भी सन्नाटा सा पसर गया हिअ,
जिनकी जेबों में मैले- कुचले नोट होते थे,
अचानक से वो ही अमीर हो गए हैं,
बंगलों के दरबान भी साहब से रईस हो गए हैं,
नींद साहबों की उड़ती देख दबी हंसी में कहकहे लगा रहे हैं,
खुश हैं सब ये सोच कर दूसरा दुखी है,
दूध की नदियां जिस देश में थी बहती,
वहां नोट देखो  नदियों में बह रहें हैं, 
एक ही रात में देखो कैसी नींद उड़ाई है,
गरीबों को देखो कैसे नोटों की गड्डियां थमाई हैं,
हर रोज़ नए जुमलों से धनासेठों की कैसे नींद उड़ाई जा रही है,
चलो थोड़ा सा ही सही रामराज्य जैसे आ गया है ॥ 

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