Monday, December 28, 2015
Wednesday, December 23, 2015
ठण्ड
पहाड़ों पर बढ़ने लगी है बर्फ की सफ़ेद चादर, अब मैदान भी इस कदर ठिठुरने लगे हैं,
बंद होने लगे दरवाजे घरों के, न है जिनके पास छत बेहाल वो भी सिकुडंने से लगे हैं,
तनों पर परतें चढ़ने लग गयी हैं, न है जिनके पास फटेहाल वो गुदड़ी में सिमटने लगे हैं,
गली -मोहल्लों में सन्नाटे पसरने लगे गए हैं, सड़को पर अलाव भी अब जलने लगे है,
दरख़्त और पत्ते भी सिकुड़ रहे हैं, परिंदे भी छिपने के लिए जगह ढूंढने लगे हैं,
सूरज की तपिश भी अब मंद पड़ने लगी है, रात कोहरे की चादर में खोने सी लगी है,
सर्द हवाओं के थपेड़े न जाने अब कितनों को आगोश में लेगी,
ठण्ड एक बार फिर कहर ढाने को बेसब्र हो रही है ॥
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